5000 year old village

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गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

कश्मीर के इलाज से डरते हैं हम...
कश्मीर इन दिनों फिर चर्चा में है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि कश्मीर के कारण दो बुद्धिजीवी इन दिनों चर्चा में हैं। एक अरुंधती रॉय जिन्होंने कश्मीर की आज़ादी को ही इस समस्या का एकमात्र हल बताया है। दूसरे पत्रकार दिलीप पडगांवकर जिन्होंने कश्मीर को विवाद का मुद्दा मानते हुए इसे सुलझाने में पाकिस्तान की भूमिका पर ज़ोर दिया है। दिलीप पडगांवकर कश्मीर के सभी पक्षों का मत जानने के लिए भारत सरकार द्वारा नियुक्त तीन वार्ताकारों में से एक हैं।आपके सामने दो विकल्प हैं। आप इन दोनों की बातों को इग्नोर कर दें, उन्हें देशद्रोही, गद्दार या पाकिस्तानी एजेंट - कुछ भी खिताब दे दें। लेकिन तब आप कश्मीर के मुद्दे पर वहीं खड़े रह जाएंगे जहां अब तक खड़े हैं। दूसरा विकल्प है, उनकी बातों को ध्यान से सुनें, यह मानकर सुनें कि वे अपनी निजी राय नहीं दे रहे हैं, वे कश्मीरियों से मिलने के बाद कुछ कह रहे हैं, वे कश्मीर के बारे में कश्मीरियों की बात कह रहे हैं।उस कश्मीर की बात जो न जाने कबसे सुलग रहा है। कब तक सुलगेगा, इसका क्या इलाज है, इन सब सवालों पर लोगों और दलों के अलग-अलग विचार हो सकते हैं। लेकिन एक मुद्दे पर सबके विचार एक हैं, या कम से कम मुझे लगता है कि एक हैं – कि कश्मीरी अपनी इच्छा से भारत के साथ नहीं रहना चाहते। मैं यह नहीं कह रहा कि वे पाकिस्तान के साथ रहना चाहते हैं। मेरी समझ यह है, और सारे पोल भी यही कह रहे हैं कि वे अलग रहना चाहते हैं।अभी कुछ महीने पहले लंदन के चैटम हाउस की तरफ से दोनों कश्मीरी भागों में एक ओपिनियन पोल कराया गया था। पोल का नतीजा यह था कि दोनों तरफ के कश्मीरी न तो भारत के साथ रहना चाहते थे न ही पाकिस्तान के साथ। ज्यादातर आज़ादी चाहते हैं। पोल के मुताबिक कश्मीरी घाटी में ऐसा चाहनेवालों की संख्या 74 से 95 प्रतिशत थी।यह पोल 2010 में यानी इसी साल कराया गया था। इससे पहले 1995 में आउटलुक मैगज़ीन ने अपने पहले अंक में ही कश्मीरियों का मन जानने के लिए एक ओपिनियन पोल कराया था। उसका नतीज़ा भी यही था – 72 प्रतिशत कश्मीरी भारत के साथ नहीं रहना चाहते। यानी 15 सालों में कश्मीर के हालात वैसे ही हैं। आप उनका मन नहीं बदल पाए। सच तो यह है कि आपने कभी भी उसका मन जानने की कोशिश ही नहीं की। अगर जानने की कोशिश की होती तो आज वे हमारे साथ होते और बिना किसी शिकायत के होते।1947-48 में हमें एक मौका मिला था लेकिन हमने उसे गंवा दिया।1947 में भारत-पाक बंटवारा हुआ। तय यह था कि हिंदू-बहुल प्रांत भारत में और मुस्लिम-बहुल सूबे पाकिस्तान के हिस्से में जाएंगे। रजवाड़ों को यह आज़ादी दे दी गई थी कि वे चाहे भारत में मिलें, चाहे पाकिस्तान में या फिर स्वतंत्र रहें। जम्मू-कश्मीर रियासत के राजा हरि सिंह ने पहले पाकिस्तान से सौदेबाजी की कोशिश की लेकिन जो वह चाहते थे, वह सब उनको देने पर पाकिस्तानी हुकूमत राजी नहीं हुई। उल्टे उसने कश्मीर पर हमला करवा दिया। इस हमले के बाद राजा हरि सिंह ने भारत से संपर्क किया। भारत ने मदद की हामी तो भरी लेकिन साथ यह शर्त जोड़ दी कि राजा हरि सिंह पहले जम्मू-कश्मीर के भारत के साथ विलय की संधि पर दस्तखत करें। इसके बाद राजा ने अक्सेशन ट्रीटी पर दस्तखत करके कश्मीर को भारत में मिलाने का करार किया।
इस सारे प्रोसेस में गड़बड़ यह थी कि जब सारा भारत-पाक बंटवारा ही सांप्रदायिक आधार पर हो रहा था, तब एक मुस्लिम-बहुल राज्य भारत के साथ मिलाया जा रहा है बिना इस बात की पड़ताल किए कि वहां के लोग क्या चाहते हैं। कोई भी तब यह निष्कर्ष निकाल सकता था कि कश्मीरी मुसलमान भारत के साथ नहीं रहना चाहते थे और एक हिंदू राजा ने अपने हित में अपनी रियासत को भारत से मिलाने का करार कर दिया। स्थिति इसलिए और भी जटिल थी कि हैदराबाद और जूनागढ़ के मामले में तब की भारत सरकार का स्टैंड बिल्कुल अलग था। हैदराबाद के निजाम और जूनागढ़ के नवाब अपने इलाकों को भारत के साथ नहीं मिलाना चाहते थे, लेकिन जनता की इच्छा के नाम पर भारत सरकार ने उनकी एक नहीं चलने दी।तब के प्रधानमंत्री नेहरू जानते थे कि कश्मीर के मामले में भारत का स्टैंड अंतरराष्ट्रीय मंच पर ठहर नहीं पाएगा क्योंकि कश्मीर में एक बात (राजा की इच्छा का सम्मान) और हैदराबाद और जूनागढ़ में दूसरी बात (जनता की इच्छा का सम्मान) नहीं चल सकती। नेहरू कभी भी इस बात को नहीं मान सकते थे कि कोई राज्य सिर्फ इसलिए भारत के साथ रहे कि उसका राजा यह चाहता है। इसीलिए उन्होंने यूएनओ को भरोसा दिलाया कि हम कश्मीरियों से जबरदस्ती नहीं कर रहे और हम जल्द से जल्द उनकी इच्छा जानने के लिए जनमतसंग्रह करेंगे। उनको यह भी विश्वास था कि कश्मीरी इस जनमतसंग्रह में भारत के पक्ष में ही मतदान करेंगे क्योंकि कश्मीरियों के नेता शेख अब्दुल्ला भी पाकिस्तान के साथ नहीं जाना चाहते थे। उन्हें लगता था कि इस्लामिक पाकिस्तान के मुकाबले सेक्युलर भारत के साथ रहना ज्यादा सही होगा।लेकिन बाद में यह मामला उलझ गया क्योंकि पाकिस्तान की मांग थी कि जनमतसंग्रह यूएन की देखरेख में हो और जनमतसंग्रह से पहले पूरे इलाके से बाहरी फौजें (जिनमें भारतीय फौजें भी शामिल थीं) पूरी तरह से हटाई जाएं। भारत इसके लिए तैयार नहीं था। मामला वहीं लटका रहा। इस बीच काफी घटनाएं हुईं। 1952 में शेख अब्दुल्ला के साथ दिल्ली अग्रीमेंट साइन हुआ लेकिन एक साल बाद वही शेख अब्दुल्ला गिरफ्तार कर लिए गए। शेख के जेल में रहते-रहते 1954 में कश्मीर की संविधान सभा से भारत के साथ मर्जर का अनुमोदन करवा दिया गया और भारत की तरफ से जनमतसंग्रह का मामला हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गया।लेकिन इससे नुकसान यह हुआ कि पाकिस्तान को यह मुद्दा भी हमेशा-हमेशा के लिए मिल गया कि कश्मीरियों से तो आपने कभी पूछा ही नहीं। वह हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर यह मुद्दा उठाता रहता है और हमारे पास बगलें झांकने और यह रटा-रटाया वाक्य बोलने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं है कि जम्मू-कश्मीर भारत का एक अभिन्न हिस्सा है। लेकिन इस वाक्य का तब कोई मतलब नहीं रह जाता जब कोई देश हमसे पलटकर यह पूछ बैठता है - अगर जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है तो क्या 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) पाकिस्तान का अभिन्न अंग नहीं था? उसकी आज़ादी में आपने क्यों मदद की?1971 में हमने जो किया, उसका बदला पाकिस्तानी हुक्मरानों ने कश्मीर और पंजाब में हमसे लिया। पंजाब में वह ज्यादा समय तक कामयाब नहीं रहा क्योंकि वहां की ज़मीन हिंदू-सिख नफरत की जंग के लिए उर्वर नहीं थी लेकिन कश्मीर में उसकी रणनीति कामयाब रही। हमने पूर्वी पाकिस्तान को अलग करके पाकिस्तान का बायां अंग काट डाला था और उसने कश्मीर में हमें ऐसा ब्रेन ट्यूमर दिया है जिसका इलाज निकट भविष्य में होता नज़र नहीं आता। बल्कि यूं कहें कि हम इसके इलाज से डरते हैं। हम सोचते हैं कि यह बीमारी अपने-आप ठीक हो जाएगी या फिर जिस तरह 60 साल से यह दर्द सह रहे हैं, आगे भी सहते रहेंगे।आप ज़मीन के किसी टुकड़े को बंदूकों के बल पर अपने कब्जे में रख तो सकते हैं, लेकिन उस ज़मीन पर रहनेवालों का दिल नहीं जीत सकते। ठीक वैसे ही जैसे कोई बाहुबली लाठी और गोली के बल पर किसी जवान लड़की को अपनी दुल्हन बनने पर मजबूर कर सकता है, लेकिन वह उसका प्यार नहीं जीत सकता भले ही वह उसे महलों का सुख दे, चाहे गहनों से लाद दे, चाहे कुछ भी कर ले! अपनी निगाहों में हम चाहे कुछ भी हों, दुनिया के निगाह में हम वही बाहुबली हैं।
 

रविवार, 30 मई 2010

लिव इन रिलेसन्शिप

यह बहुत ही सोचने की बात है कि सुप्रीम अदालत कहती है कि शादी से पहले लड़का लड़की साथ में रह सकते है और हवाला देते हैं की भगवान कृष्ण भी शादी से पहले राधा जी साथ रहते थे. जब राधा कृष्ण का हवाला दे कर हम लिव इन रिलेशन शिप को सही साबित करना चाह्ते है. इस तरह तो हम किसी भी लड़की को भगा सकते है क्योकि भगवान कृष्ण ने भी रुक्मनी जी का अपहरन किया था. जब देश की सबसे बड़ी अदालत ही इस तरह के बचकाना फैसले सुनाएगी तो आम आदमी का तो कहना ही क्या. भगवान कृष्ण की सिर्फ़ एक बात ही मत देखो उन्होने तो अपने सम्पूर्न जीवन मे बहुत कुछ किया था. पता नही हमारे देश के ये करणधााऱ देश को कहा ले जाएगे.

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

हुसैन पर हाय-तौबा

हम हुसैन के कतर मे बस जाने पर प्रलाप कर रहे है और हिंदुओं पर उनके पीछे पड़ने का आरोप मढ़ रहे है। कुछ टीवी एंकर हुसैन के भारत की नागरिकता छोड़ कर कतर की नागरिकता लेने पर चीत्कार मचा रहे हैं किंतु वे हुसैन की कलात्मक स्वच्छंदता की सच्चाई बताने के इच्छुक नहीं हैं। इसलिए अब समय है कि हुसैन के बारे में कुछ गरम पहलुओं से परदा उठाएं। दैनिक जागरन मे ऎ. सूर्यप्रकाश क एक लेख देखे
हुसैन को भारत से भागने के लिए किसने मजबूर किया? 'एंटी हिंदूज' पुस्तक के लेखक प्रफुल गोर्दिया और केआर पांडा कुछ महत्वपूर्ण सुराग और इस सवाल का विस्तार से उत्तार देते हैं। इस पुस्तक में न केवल संस्कार भारती के डीपी सिन्हा की प्रेस विज्ञप्ति प्रकाशित की गई है, बल्कि हुसैन की बेहद घिनौनी पेंटिगों की तस्वीरें भी छपी हैं। असलियत में, यह प्रेस विज्ञप्ति चित्रकार के खिलाफ विस्तृत आरोपपत्र ही है क्योंकि इसमें पेंटिंगों को एक से बढ़कर एक भौंडी और निंदनीय बताया गया हैं। यहां इस संगठन द्वारा आठ सर्वाधिक आपत्तिाजनक पेंटिंगों की सूची जारी की गई है। पहली पेंटिंग का शीर्षक 'दुर्गा' है, जिसमें दुर्गा देवी को एक टाइगर के साथ रति क्रिया रत दिखाया गया है। 'रेस्क्यूइंग सीता' पेंटिंग में नग्न सीता को हनुमान की पूंछ पकड़े चित्रित किया गया है। 'हनुमान की पूंछ' शालीनता की तमाम सीमाओं को लांघते हुए एक लैंगिग प्रतीक के रूप में प्रस्तुत की गई है। भगवान विष्णु को आम तौर पर चार हाथों के साथ चित्रित किया जाता है, जिनमें शंख, पद्म, गदा और चक्र होते हैं। किंतु हुसैन की पेंटिंग में विष्णु के हाथ काट दिए गए हैं। यही नहीं उनके पैर भी कटे हुए हैं। विकृत और थकेहारे विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मी और वाहन गरुड़ की ओर देख रहे हैं। 'भगवान विष्णु के हाथ-पैर काटना रचनात्मक स्वतंत्रता है या फिर हिंदू संवेदना का जानबूझ कर अपमान करना है?' सरस्वती जिन्हें हिंदू एक देवी के रूप में पूजते हैं, श्वेत साड़ी में चित्रित की जाती हैं। इन्हें भी हुसैन ने अपनी पेंटिंग में नग्न दर्शाया है। एक अन्य पेंटिंग में नग्न देवी लक्ष्मी देव गणेश के सिर पर सवार हैं। इस दृश्य से भी कामुकता झलकती है। हनुमान-4 शीर्षक से एक पेंटिंग में तीन मुख वाले हनुमान और एक नग्न युगल चित्रित किया गया है। 'महिला की पहचान संदेह से परे है। हनुमान का जननांग महिला की ओर दिखाया गया है। इसमें अश्लीलता बिल्कुल स्पष्ट झलकती है।' हनुमान-13 शीर्षक वाली पेंटिंग में बिल्कुल नग्न सीता नग्न रावण की जांघ पर बैठी हैं और नग्न हनुमान उन पर वार कर रहे हैं। एक अन्य पेंटिंग 'जार्ज वाशिंगटन एंड अर्जुन आन द चैरियट' में महाभारत के प्रसिद्ध गीता प्रसंग की पृष्ठभूमि में भगवान कृष्ण का स्थान वाशिंगटन ने ले लिया है क्योंकि 'भगवान कृष्ण की आंखों में कोई देवत्व नहीं है और उनकी अवमानना करते हुए उन्हें महज एक मानव जार्ज वाशिंगटन के रूप में पेश किया गया है।'
क्या हुसैन का यह मूर्तिभंजन एकसमान है? ऐसा बिल्कुल नहीं है। बात जब गैर हिंदू विषयों की आती है तो हुसैन आदर और सम्मान के प्रतिमान स्थापित कर लेते हैं। वह पैगंबर मोहम्मद की बेटी फातिमा को पवित्रता और शिष्टता के साथ चित्रित किया है, जो कपड़े पहने हुए हैं। यहां चित्रकार कोई छूट नहीं लेता। वह तब भी कोई छूट नहीं लेता जब उनकी बेटी और माता का चित्रण करता है। हुसैन की 'मदर टैरेसा' पेंटिंग कला का लाजवाब नमूना है, जिसमें मदर टैरेसा करुणा की प्रतिमूर्ति लगती हैं। अगर ऐसा है तो हुसैन ने हिंदू देवी-देवताओं को इस कदर घिनौने अंदाज में क्यों चित्रित किया? इसका जवाब एक और पेंटिंग में मिलता है। एक पेंटिंग में आइंस्टीन, गांधी, माओ और हिटलर चित्रित किए गए हैं, जिनमें से केवल हिटलर को नग्न दिखाया गया है। क्या हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जिन चरित्रों को हुसैन घिनौना मानते हैं उन्हें नग्न चित्रित करते हैं? इन निंदनीय कला कर्म को पुन‌र्प्रकाशित करने और संस्कार भारती की विस्तृत प्रेस विज्ञप्ति जारी करने वाले प्रफुल गोर्दिया और केआर पांडा एमएफ हुसैन को 'विकृत कामवासना से ग्रस्त व्यक्ति' बताते हैं। इन पेंटिंग के फोटोग्राफ मौलिक रूप से एक ऐसी पुस्तक में प्रकाशित हुए थे, जिसे खुद हुसैन ने डिजाइन किया था। लेखकों ने सिन्हा द्वारा पेश किए गए आठ उदाहरणों में अपनी तरफ से भी तीन जोड़े हैं। इनमें एक पेंटिंग में सांड को पार्वती से सहवास करते दिखाया गया है, जबकि शंकर उनकी तरफ देख रहे हैं। दूसरी में हनुमान के जननांग को एक औरत की ओर दर्शाया गया है और एक पेंटिंग में नग्न कृष्ण के हाथ-पैर कटे हुए दिखाए गए हैं। लेखक नंग्नता, अश्लीलता और कामविकृति में भेद की तरफ ध्यान खींचते हैं। वे कहते हैं, 'जब अश्लीलता या कामविकृति के साथ देवी-देविताओं को चित्रित किया जाता है तो यह आस्था के साथ खिलवाड़ करने की श्रेणी में आता है।'
जैसाकि गोर्दिया और पांडा रेखांकित करते हैं, हुसैन को संदेह का लाभ देना बिल्कुल संभव नहीं है। आइंस्टीन, गांधी, माओ और हिटलर के चित्रण वाली पेंटिंग अकाट्स साक्ष्य है। पहले तीन के शरीर पर कपड़े हैं, जबकि हिटलर नग्न है। 'क्या इसका यह मतलब नहीं है कि जिनसे वह घृणा करते हैं, उन्हें नग्न चित्रित करते हैं?' वे पूछते हैं, 'क्या हिंदू का सम्मान करने वाला कोई भी व्यक्ति हुसैन को माफ कर सकता है?' इसका जवाब स्पष्ट तौर पर ना है। तो हुसैन की कला से प्रताड़ित किसी हिंदू को क्या करना चाहिए? कुछ ऐसे असभ्य लोगों को छोड़कर जिन्होंने कानून अपने हाथ में लेकर चित्रकार की कुछ पेंटिंग प्रदर्शनियों में तोड़फोड़ की, अधिकांश हिंदुओं की प्रतिक्रिया वही थी, जो एक लोकतंत्र में होनी चाहिए। उन्होंने अदालत की शरण ली और चित्रकार के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज कराए। उन्होंने कानून का सहारा लिया जो नागरिकों को अन्य नागरिकों की पंथिक संवेदनाओं पर आघात करने से रोकता है। उन्हें जान से मारने की धमकी नहीं दी गई और इस तरह के भद्दी घोषणाएं नहीं की गई जैसी उत्तार प्रदेश में एक मुसलमान ने डेनमार्क के काटूर्निस्ट का सिर कलम करने वाले को 51 करोड़ रुपए देने की पेशकश के रूप में की थी, जिसने पैगंबर मोहम्मद का कार्टून बनाया था। अगर आप कुछ टीवी एंकरों के हावभाव पर गौर करें तो इस ईश-निंदा के घटिया तरीके पर हिंदुओं की लोकतांत्रिक प्रतिक्रिया के लिए कोई सराहना नहीं की जानी चाहिए, बल्कि अदालत में खींचने के लिए इनकी भ‌र्त्सना की जानी चाहिए।
हुसैन के मित्र और प्रशंसक जो भी कहें, सच्चाई यह है कि हिंदू भावनाओं के साथ इस प्रकार की घृणित खिलवाड़ के कारण वह कानूनी रूप से भगोड़ा घोषित हैं। जबसे उन पर मामले दर्ज किए गए हैं, वह फरार चल रहे हैं। बहुत से हिंदू जो हुसैन की इस घिनौनी कला से परिचित हैं, उन्हें कतरनाक पेंटर बताते हैं। इसलिए कहा जा रहा है कि उनके लिए कतर ही उनकी अंतिम मंजिल थी! किंतु अगर हम अपनी पंथनिरपेक्ष परंपरा को मान देते हैं तो हमें उन्हें बचकर भाग निकलने नहीं देना चाहिए। कानून की लंबी बांह को कतर तक जाना चाहिए। हमें उनका प्रत्यारोपण करके 80 करोड़ भावनाओं पर चोट पहुंचाने के लिए उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए।

गुरुवार, 25 मार्च 2010

विषय :-- भारत के बेबकूफ़ बुधीजीवी
भारत के कुछ बुधीजीवी हूसेन के कतर की नागरिकता लेने पर हो हल्ला मचा रहे हैं. परंतु इन मूर्खों से कोई ये नहीं पूछता की उसने भारत माता सहित हिंदू देवी देवताओं की जो तस्वीर बनाईं हैं उनको देख कर तुम्हारा खून नहीं खौलता, यदि नहीं तो आप का खून अपनी मा या बहन की बेइजती भी सहन कर सकता है. हिन्दुओ को काफ़िर कहने वाले लोंगो के सामने भारत के इन लोगो को घुटने टेकते देख इनकी मर्दानगी पर संदेह होता है. पर क्या करें ये मर्द तो हैं नहीं. ये लोग हिंदू देवी देवताओ का अपमान सह सकते हैं पर मुसलमानो के खिलाफ ये एक शब्द भी नही सुन सकते. आख़िर पक्के चम्चे हैं मुसलमानो की 712 ई से गुलामी कर रहे हैं. ये लोग अपने बाप को बाप नही कहते दूसरे के बाप को बाप कहने वाले हैं. हिंदू देवताओ की नग्न तस्वीर बनाने वाले को पूजते हैं उसके विदेश में बसने पर इनको लग रहा है की इनके माँ बाप इनको छोड़ कर चल बसे हों. अभिव्यक्ति की स्वतंत्र के नाम पर हिन्दुओ की भावनाओ से खेलने वालों के सामने ये लोग नतमस्तक हैं. ये लोग खुज़रहो का हवाला देते हैं की वहाँ भी देवी देवताओं की नग्न मूर्तियाँ हैं, पर ये (मुसलमान) तो बुतपरस्त नहीं हैं फिर ये लोग इस तरह के उदाहरण कैसे दे सकते है. क्या ये खुज़रहो की मूर्तियाँ बनाने वालों की भावनाओं को समझ सकते हैं, नहीं समझ सकते क्योकि इनका मकसद कुझ समझना नहीं है. दूसरे जो नज़रिया देवी देवताओं के प्रति हिंदुओं का है वो नज़रिया मुसलमानो का नही हो सकता. इसलिए इन मूर्खों को कोई तो समझाए की आग से खेलने की कोशिश न करें नही तो इस देश में इनको सबक सीखने वालों की कोई कमी नहीं है. इनको मेरी नेक सलाह हैं की अपने बाप को ही बाप कहो दोसरे के बाप को बाप कहोगे तो नाजायज़ औलाद काहलोगे. अब ये आप के उपर है की आप नाजायज़ बनना पसंद करोगे या देश और धर्म प्रेमी.

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

आर्याव्रत ......अपनी संस्क्रती की ओर

हम एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन करने जा रहे हैं. जिसका विषय धार्मिक, सांस्कृतिक ओर समसामयिक घटनाओं पर आधारित होगा. जिसके मध्यम से हम आपको भारत की प्राचीन सभ्यता के बारे में जानकारी देंगे. सामाजिक बुराइयों के बारे में जागरूक करेंगे. हम आपसे अनुरोध करते हैं की आप इस पत्रिका के सदस्य बनें ओर हमारे उद्देश्यों को पूरा करने में हमारी मदद करें. सदस्यता लेने के लिए संपर्क करें.
09313398104

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

ताजमहल या हिन्दू मंदिर – श्री पी.एन ओक के तर्क 1

नाम

1. शाहज़हां और यहां तक कि औरंगज़ेब के शासनकाल तक में भी कभी भी किसी शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ताजमहल शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।

2. शब्द ताजमहल के अंत में आये ‘महल’ मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो।

3. साधारणतः समझा जाता है कि ताजमहल नाम मुमताजमहल, जो कि वहां पर दफनाई गई थी, के कारण पड़ा है। यह बात कम से कम दो कारणों से तर्कसम्मत नहीं है – पहला यह कि शाहजहां के बेगम का नाम मुमताजमहल था ही नहीं, उसका नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था और दूसरा यह कि किसी इमारत का नाम रखने के लिय मुमताज़ नामक औरत के नाम से “मुम” को हटा देने का कुछ मतलब नहीं निकलता।

4. चूँकि महिला का नाम मुमताज़ था जो कि ज़ अक्षर मे समाप्त होता है न कि ज में (अंग्रेजी का Z न कि J), भवन का नाम में भी ताज के स्थान पर ताज़ होना चाहिये था (अर्थात् यदि अंग्रेजी में लिखें तो Taj के स्थान पर Taz होना था)।

5. शाहज़हां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख ‘ताज-ए-महल’ के नाम से किया है जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम तेजोमहालय से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहज़हां और औरंगज़ेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुये उसके स्थान पर पवित्र मकब़रा शब्द का ही प्रयोग किया है।

6. मकब़रे को कब्रगाह ही समझना चाहिये, न कि महल। इस प्रकार से समझने से यह सत्य अपने आप समझ में आ जायेगा कि कि हुमायुँ, अकबर, मुमताज़, एतमातुद्दौला और सफ़दरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिंदू महलों या मंदिरों में दफ़नाया गया है।

7. और यदि ताज का अर्थ कब्रिस्तान है तो उसके साथ महल शब्द जोड़ने का कोई तुक ही नहीं है।

8. चूँकि ताजमहल शब्द का प्रयोग मुग़ल दरबारों में कभी किया ही नहीं जाता था, ताजमहल के विषय में किसी

श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक Tajmahal is a Hindu Temple Palace में 100 से भी अधिक प्रमाण एवं तर्क देकर दावा करते हैं कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है। श्री पी.एन. ओक के तर्कों और प्रमाणों के समर्थन करने वाले छायाचित्रों का संकलन भी है (देखने के लिये क्लिक करें)।

श्री ओक ने कई वर्ष पहले ही अपने इन तथ्यों और प्रमाणों को प्रकाशित कर दिया था पर दुःख की बात तो यह है कि आज तक उनकी किसी भी प्रकार से अधिकारिक जाँच नहीं हुई। यदि ताजमहल के शिव मंदिर होने में सच्चाई है तो भारतीयता के साथ बहुत बड़ा अन्याय है। विद्यार्थियों को झूठे इतिहास की शिक्षा देना स्वयं शिक्षा के लिये अपमान की बात है।

क्या कभी सच्चाई सामने आ पायेगी

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009


गोस्वामी तुलसीदास कृत
संकटमोचन हनुमानाष्टक
मत्तगयन्द छन्द
बाल समय रबि भक्षि लियो तब, तीनहुँ लोक भयो अँधियारो ।
ताहि सों त्रास भयो जग को, यह संकट काहु सों जात न टारो ॥
देवन आन करि बिनती तब, छाँड़ि दियो रबि कष्ट निवारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 1 ॥

बालि की त्रास कपीस बसै गिरि, जात महाप्रभु पंथ निहारो ।
चौंकि महा मुनि शाप दिया तब, चाहिय कौन बिचार बिचारो ॥
के द्विज रूप लिवाय महाप्रभु, सो तुम दास के शोक निवारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 2 ॥

अंगद के संग लेन गये सिय, खोज कपीस यह बैन उचारो ।
जीवत ना बचिहौ हम सो जु, बिना सुधि लाय इहाँ पगु धारो ॥
हेरि थके तट सिंधु सबै तब, लाय सिया-सुधि प्राण उबारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 3 ॥

रावन त्रास दई सिय को सब, राक्षसि सों कहि शोक निवारो ।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु, जाय महा रजनीचर मारो ॥
चाहत सीय अशोक सों आगि सु, दै प्रभु मुद्रिका शोक निवारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 4 ॥

बाण लग्यो उर लछिमन के तब, प्राण तजे सुत रावण मारो ।
लै गृह बैद्य सुषेन समेत, तबै गिरि द्रोण सु बीर उपारो ॥
आनि सजीवन हाथ दई तब, लछिमन के तुम प्राण उबारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 5 ॥

रावण युद्ध अजान कियो तब, नाग कि फाँस सबै सिर डारो ।
श्रीरघुनाथ समेत सबै दल, मोह भयो यह संकट भारो ॥
आनि खगेस तबै हनुमान जु, बंधन काटि सुत्रास निवारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 6 ॥

बंधु समेत जबै अहिरावन, लै रघुनाथ पाताल सिधारो ।
देबिहिं पूजि भली बिधि सों बलि, देउ सबै मिति मंत्र बिचारो ॥
जाय सहाय भयो तब ही, अहिरावण सैन्य समेत सँहारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 7 ॥

काज किये बड़ देवन के तुम, वीर महाप्रभु देखि बिचारो ।
कौन सो संकट मोर गरीब को, जो तुमसों नहिं जात है टारो ॥
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु, जो कछु संकट होय हमारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 8 ॥

॥ दोहा ॥
लाल देह लाली लसे, अरू धरि लाल लंगूर ।
बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर ॥

॥ इति संकटमोचन हनुमानाष्टक सम्पूर्ण