5000 year old village

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गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

कश्मीर के इलाज से डरते हैं हम...
कश्मीर इन दिनों फिर चर्चा में है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि कश्मीर के कारण दो बुद्धिजीवी इन दिनों चर्चा में हैं। एक अरुंधती रॉय जिन्होंने कश्मीर की आज़ादी को ही इस समस्या का एकमात्र हल बताया है। दूसरे पत्रकार दिलीप पडगांवकर जिन्होंने कश्मीर को विवाद का मुद्दा मानते हुए इसे सुलझाने में पाकिस्तान की भूमिका पर ज़ोर दिया है। दिलीप पडगांवकर कश्मीर के सभी पक्षों का मत जानने के लिए भारत सरकार द्वारा नियुक्त तीन वार्ताकारों में से एक हैं।आपके सामने दो विकल्प हैं। आप इन दोनों की बातों को इग्नोर कर दें, उन्हें देशद्रोही, गद्दार या पाकिस्तानी एजेंट - कुछ भी खिताब दे दें। लेकिन तब आप कश्मीर के मुद्दे पर वहीं खड़े रह जाएंगे जहां अब तक खड़े हैं। दूसरा विकल्प है, उनकी बातों को ध्यान से सुनें, यह मानकर सुनें कि वे अपनी निजी राय नहीं दे रहे हैं, वे कश्मीरियों से मिलने के बाद कुछ कह रहे हैं, वे कश्मीर के बारे में कश्मीरियों की बात कह रहे हैं।उस कश्मीर की बात जो न जाने कबसे सुलग रहा है। कब तक सुलगेगा, इसका क्या इलाज है, इन सब सवालों पर लोगों और दलों के अलग-अलग विचार हो सकते हैं। लेकिन एक मुद्दे पर सबके विचार एक हैं, या कम से कम मुझे लगता है कि एक हैं – कि कश्मीरी अपनी इच्छा से भारत के साथ नहीं रहना चाहते। मैं यह नहीं कह रहा कि वे पाकिस्तान के साथ रहना चाहते हैं। मेरी समझ यह है, और सारे पोल भी यही कह रहे हैं कि वे अलग रहना चाहते हैं।अभी कुछ महीने पहले लंदन के चैटम हाउस की तरफ से दोनों कश्मीरी भागों में एक ओपिनियन पोल कराया गया था। पोल का नतीजा यह था कि दोनों तरफ के कश्मीरी न तो भारत के साथ रहना चाहते थे न ही पाकिस्तान के साथ। ज्यादातर आज़ादी चाहते हैं। पोल के मुताबिक कश्मीरी घाटी में ऐसा चाहनेवालों की संख्या 74 से 95 प्रतिशत थी।यह पोल 2010 में यानी इसी साल कराया गया था। इससे पहले 1995 में आउटलुक मैगज़ीन ने अपने पहले अंक में ही कश्मीरियों का मन जानने के लिए एक ओपिनियन पोल कराया था। उसका नतीज़ा भी यही था – 72 प्रतिशत कश्मीरी भारत के साथ नहीं रहना चाहते। यानी 15 सालों में कश्मीर के हालात वैसे ही हैं। आप उनका मन नहीं बदल पाए। सच तो यह है कि आपने कभी भी उसका मन जानने की कोशिश ही नहीं की। अगर जानने की कोशिश की होती तो आज वे हमारे साथ होते और बिना किसी शिकायत के होते।1947-48 में हमें एक मौका मिला था लेकिन हमने उसे गंवा दिया।1947 में भारत-पाक बंटवारा हुआ। तय यह था कि हिंदू-बहुल प्रांत भारत में और मुस्लिम-बहुल सूबे पाकिस्तान के हिस्से में जाएंगे। रजवाड़ों को यह आज़ादी दे दी गई थी कि वे चाहे भारत में मिलें, चाहे पाकिस्तान में या फिर स्वतंत्र रहें। जम्मू-कश्मीर रियासत के राजा हरि सिंह ने पहले पाकिस्तान से सौदेबाजी की कोशिश की लेकिन जो वह चाहते थे, वह सब उनको देने पर पाकिस्तानी हुकूमत राजी नहीं हुई। उल्टे उसने कश्मीर पर हमला करवा दिया। इस हमले के बाद राजा हरि सिंह ने भारत से संपर्क किया। भारत ने मदद की हामी तो भरी लेकिन साथ यह शर्त जोड़ दी कि राजा हरि सिंह पहले जम्मू-कश्मीर के भारत के साथ विलय की संधि पर दस्तखत करें। इसके बाद राजा ने अक्सेशन ट्रीटी पर दस्तखत करके कश्मीर को भारत में मिलाने का करार किया।
इस सारे प्रोसेस में गड़बड़ यह थी कि जब सारा भारत-पाक बंटवारा ही सांप्रदायिक आधार पर हो रहा था, तब एक मुस्लिम-बहुल राज्य भारत के साथ मिलाया जा रहा है बिना इस बात की पड़ताल किए कि वहां के लोग क्या चाहते हैं। कोई भी तब यह निष्कर्ष निकाल सकता था कि कश्मीरी मुसलमान भारत के साथ नहीं रहना चाहते थे और एक हिंदू राजा ने अपने हित में अपनी रियासत को भारत से मिलाने का करार कर दिया। स्थिति इसलिए और भी जटिल थी कि हैदराबाद और जूनागढ़ के मामले में तब की भारत सरकार का स्टैंड बिल्कुल अलग था। हैदराबाद के निजाम और जूनागढ़ के नवाब अपने इलाकों को भारत के साथ नहीं मिलाना चाहते थे, लेकिन जनता की इच्छा के नाम पर भारत सरकार ने उनकी एक नहीं चलने दी।तब के प्रधानमंत्री नेहरू जानते थे कि कश्मीर के मामले में भारत का स्टैंड अंतरराष्ट्रीय मंच पर ठहर नहीं पाएगा क्योंकि कश्मीर में एक बात (राजा की इच्छा का सम्मान) और हैदराबाद और जूनागढ़ में दूसरी बात (जनता की इच्छा का सम्मान) नहीं चल सकती। नेहरू कभी भी इस बात को नहीं मान सकते थे कि कोई राज्य सिर्फ इसलिए भारत के साथ रहे कि उसका राजा यह चाहता है। इसीलिए उन्होंने यूएनओ को भरोसा दिलाया कि हम कश्मीरियों से जबरदस्ती नहीं कर रहे और हम जल्द से जल्द उनकी इच्छा जानने के लिए जनमतसंग्रह करेंगे। उनको यह भी विश्वास था कि कश्मीरी इस जनमतसंग्रह में भारत के पक्ष में ही मतदान करेंगे क्योंकि कश्मीरियों के नेता शेख अब्दुल्ला भी पाकिस्तान के साथ नहीं जाना चाहते थे। उन्हें लगता था कि इस्लामिक पाकिस्तान के मुकाबले सेक्युलर भारत के साथ रहना ज्यादा सही होगा।लेकिन बाद में यह मामला उलझ गया क्योंकि पाकिस्तान की मांग थी कि जनमतसंग्रह यूएन की देखरेख में हो और जनमतसंग्रह से पहले पूरे इलाके से बाहरी फौजें (जिनमें भारतीय फौजें भी शामिल थीं) पूरी तरह से हटाई जाएं। भारत इसके लिए तैयार नहीं था। मामला वहीं लटका रहा। इस बीच काफी घटनाएं हुईं। 1952 में शेख अब्दुल्ला के साथ दिल्ली अग्रीमेंट साइन हुआ लेकिन एक साल बाद वही शेख अब्दुल्ला गिरफ्तार कर लिए गए। शेख के जेल में रहते-रहते 1954 में कश्मीर की संविधान सभा से भारत के साथ मर्जर का अनुमोदन करवा दिया गया और भारत की तरफ से जनमतसंग्रह का मामला हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गया।लेकिन इससे नुकसान यह हुआ कि पाकिस्तान को यह मुद्दा भी हमेशा-हमेशा के लिए मिल गया कि कश्मीरियों से तो आपने कभी पूछा ही नहीं। वह हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर यह मुद्दा उठाता रहता है और हमारे पास बगलें झांकने और यह रटा-रटाया वाक्य बोलने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं है कि जम्मू-कश्मीर भारत का एक अभिन्न हिस्सा है। लेकिन इस वाक्य का तब कोई मतलब नहीं रह जाता जब कोई देश हमसे पलटकर यह पूछ बैठता है - अगर जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है तो क्या 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) पाकिस्तान का अभिन्न अंग नहीं था? उसकी आज़ादी में आपने क्यों मदद की?1971 में हमने जो किया, उसका बदला पाकिस्तानी हुक्मरानों ने कश्मीर और पंजाब में हमसे लिया। पंजाब में वह ज्यादा समय तक कामयाब नहीं रहा क्योंकि वहां की ज़मीन हिंदू-सिख नफरत की जंग के लिए उर्वर नहीं थी लेकिन कश्मीर में उसकी रणनीति कामयाब रही। हमने पूर्वी पाकिस्तान को अलग करके पाकिस्तान का बायां अंग काट डाला था और उसने कश्मीर में हमें ऐसा ब्रेन ट्यूमर दिया है जिसका इलाज निकट भविष्य में होता नज़र नहीं आता। बल्कि यूं कहें कि हम इसके इलाज से डरते हैं। हम सोचते हैं कि यह बीमारी अपने-आप ठीक हो जाएगी या फिर जिस तरह 60 साल से यह दर्द सह रहे हैं, आगे भी सहते रहेंगे।आप ज़मीन के किसी टुकड़े को बंदूकों के बल पर अपने कब्जे में रख तो सकते हैं, लेकिन उस ज़मीन पर रहनेवालों का दिल नहीं जीत सकते। ठीक वैसे ही जैसे कोई बाहुबली लाठी और गोली के बल पर किसी जवान लड़की को अपनी दुल्हन बनने पर मजबूर कर सकता है, लेकिन वह उसका प्यार नहीं जीत सकता भले ही वह उसे महलों का सुख दे, चाहे गहनों से लाद दे, चाहे कुछ भी कर ले! अपनी निगाहों में हम चाहे कुछ भी हों, दुनिया के निगाह में हम वही बाहुबली हैं।
 

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